सरकार ने कुकिंग गेस के सिलिंडर की कीमत में २५ रुपए की कमी कर दी. मीडिया वाले पगला गए, चिल्लाने लगे, आने वाले चुनाव से पहले तोहफा. जब सरकार कीमत बढाती है तब कोई नहीं कहता कि जेब काट ली. पर जब कीमत कम होती है तो उसे तोहफा कहा जाता है. जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें बढीं तो सरकार ने यहाँ कीमतें बढ़ा दीं. किसी ने कुछ नहीं कहा. पर जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें कम हुईं तो सरकार महीनों तक केवल घोषणाएं करती रही, और जब बाकई में कीमतें कम हुईं तो उसे तोहफे का नाम दे दिया. हकीकत यह है की जितनी कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कम हुई हैं उसके अनुपात से यहाँ कीमतें कम नहीं की गई हैं.
किसी भी प्रजातांत्रिक सरकार के लिए यह शर्म की बात है. पर इस सरकार के लिए नहीं, क्योंकि यह सरकार प्रजातांत्रिक सरकार है ही नहीं. इसे राजतंत्र, नेतातंत्र, परिवारतंत्र, या फ़िर गुंडातंत्र की सरकार तो कहा जा सकता है, पर प्रजातांत्रिक सरकार कहना सत्य को झुटलाना होगा. एक नेता बाहर निकलता है तो इतना तेल फूंक देता है जो एक आम नागरिक पूरे साल में नहीं फूंकता होगा. और इस सारे तेल की कीमत जनता को चुकानी पड़ती है. जनता के पैसे से ऐयाशी करने वाले यह नेता, 'तेल कम्पनियों को घाटा हो रहा है' की दुहाई देते हैं. २५ रुपए कम करके कहते हैं जनता को तोहफा दिया है, जैसे यह पैसा इनका है, और यह चाहते हैं कि इस तोहफे के बदले में इन्हें फ़िर वोट दिया जाय.
२५ रुपए तो तब बचेंगे जब अगली बार सिलिंडर लेंगे, पर ५०० रुपए महीने की जेब तो कट गई पिछले सितम्बर से. स्कूलों की फीस बढ़ा दी. क्या पढाते हैं यह स्कूलों में? नीति, शिष्टाचार, नैतिकता या सिर्फ़ ज्ञान-वर्धन जो मात्र पैसा कमाने के लिए है. स्कूल जब ख़ुद पैसा कमाने की दुकाने बन गए हैं तो बच्चों को क्या सिखायेंगे? पैसा,पैसा और ज्यादा पैसा. ग़लत या सही किसी तरीके से भी. लोग स्कूलों को अपनी दूसरी जरूरतें काट कर फीस देते हैं और उनका बच्चा 'ज्यादा ग़लत' और 'कम सही' सीख कर आता है स्कूल से. मास्टर ज्यादा तनख्वाह मांगते हैं और बच्चों की पिटाई करते हैं. कुछ मास्टर तो अमानवीय कृत्य तक कर डालते हैं बच्चों के साथ.
क्या करे बेचारा आम आदमी?
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Thursday, January 29, 2009
Sunday, January 04, 2009
यह पैदल चलने वाले बेबकूफ
कल अखबार में पढ़ा कि सड़क पर हुए हादसों में होने वाली मौतों का अधिक प्रतिशत सड़क पर पैदल चलने वालों का होता है. पैदल चलते-चलते अचानक ही यह लोग कार (एम्बुलेंस) में बिठा दिए जाते हैं और जहाँ उन्हें जाना था, वहां न ले जा कार उन्हें अस्पताल ले जाती है. अस्पताल में, 'मृत आए' की पर्ची लगा दी जाती है, या कुछ दिन बाद यह लोग 'मृत पर्ची' के अधिकारी हो जाते हैं.
बैसे अगर आप सरकार से पूँछें तो जवाब मिलेगा कि यह लोग सड़क पर क्यों चलते हैं? हमने पैदल चलने वालों के लिए फूटपाथ बनाए हैं, यह लोग फूटपाथ पर क्यों नहीं चलते. अब सरकार को यह कौन समझाए कि उस के बनाये फुटपाथ तो चोरी हो गए. लोगों ने फुटपाथ पर दुकाने सजा ली हैं. सरकारी बाबू, नगर निगम और पुलिस ने फुटपाथ दुकानदारों को बेच दिए हैं. साथ ही फुटपाथ से लगा सड़क का कुछ हिस्सा उन्हें बोनस में दे दिया है. पैदल चलने वाले को सड़क के बीच में चलना पड़ता है, और किसी समय भी बेचारा वर्तमान से भूतकाल हो जाता है.
मेरे एक मित्र ने कहा कि सरकार को क्या समझाओगे? सरकार जहाँ रहती है वहां के फुटपाथ थोड़े ही चोरी हुए हैं. वहां के फूटपाथ तो यहाँ की सड़क से बहुत अच्छे हैं. भूल गए जब प्रधानमन्त्री ने मुख्यमंत्री की पीठ थपथपाई थी और कहा था कि दिल्ली भारत का सबसे सुंदर शहर है. पुलिस कमिश्नर के अनुसार दिल्ली बहुत सुरक्षित है. सरकार जिन लोगों के लिए है, वह सुंदर दिल्ली में रहते हैं और सुरक्षित हैं. दूसरे लोग तो साले बेबकूफ हैं कि रोज मरते हैं, पर सुबह उठ कर वोट इसी सरकार को दे आते हैं. इतनी सी बात इन बेबकूफों की समझ में नहीं आती कि सरकार उनकी नहीं होती जिनके वोटों से बनती है.
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