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India Against Corruption - A Jan Lokpal Bill has been designed which has strong measures to bring all corrupt people to book. Join the cause and fight to force politicians to implement this powerful bill as an act in the parliament.

Friday, May 30, 2008

दोपहर में सड़कों की विजली आन

में अभी रोहिणी से घर वापस आया. बाहरी रिंग रोड पर विजली अभी भी जल रही थी. इतनी तेज धूप में विजली कम्पनिओं ने किस कारण से विजली जला रखी होगी? ऐसा मैंने पहले भी कई बार देखा है. आप में से भी कई लोगों ने देखा होगा.

जो सरकार और विजली कम्पनियाँ जनता को विजली बचाने के उपदेश देती रहती हैं, ख़ुद इस प्रकार विजली नष्ट कर रही हैं. यह लोग विजली की चोरी रोकने में नाकामयाब हैं और ख़ुद भी इस तरह विजली व्यर्थ खर्च करते हैं. इस का खामियाजा बेचारी ईमानदारी से बिल भरने वाले उपभोक्ताओं को उठाना पड़ता है.

आज कल विजली कंपनियां फ़िर से विजली की कीमत बढ़ाने का अभियान छेड़े हुए हैं. कितनी शर्म की बात हे कि इन कम्पनिओं की नालायकी की कीमत जनता को चुकानी पड़ती है. अफ़सोस यह है कि जनता के प्रतिनिधि इस मामले में कुछ नहीं करते. सरकार तो इन कम्पनियों के साथ है ही. जनता बेचारी क्या करे.

जनताकरण या निजीकरण
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Wednesday, May 28, 2008

मैंने लालू जी को पत्र लिखा

श्री लालू प्रसाद
केन्द्रीय रेल मंत्री, भारत सरकार
रेल भवन, नई दिल्ली

मंत्री महोदय,

भारत के एक वरिष्ठ नागरिक का आप को नमस्कार. कुछ दिनों पहले मुझे आपकी रेल में सफर करने का मौका मिला. मैं दिल्ली में रहता हूँ और मुझे उड़ीसा में झरसुगुडा जाना था. शाम को वायुयान से दिल्ली से कोलकाता पहुँचा. हावड़ा से मुझे हावड़ा - अहमदाबाद एक्सप्रेस (२८३४) से झरसुगुडा जाना था. एअरपोर्ट से मैं हावड़ा स्टेशन पहुँच गया. मुझे लगभग तीन घंटे स्टेशन पर बिताने थे क्योंकि यह ट्रेन रात ११५५ पर हावड़ा से छूटती है.

प्लेटफार्म पर बहुत भीड़ थी और बैठने का कोई इंतजाम नहीं था. मैं ऊपर प्रतीक्षालय में पहुँचा,पर वहाँ की स्थिति तो प्लेटफार्म से भी ख़राब थी. गरमी बहुत थी. कुर्सियों की संख्या यात्रियों की संख्या से बहुत कम थी. पंखों की संख्या भी कम थी और जिस तरह उन्हें लगाया गया था उनसे हवा नहीं मिल पा रही थी. शौचालय गंदे और बदबू से भरे हुए थे. फर्श पर पानी भरा हुआ था. मैंने जब एक सहयात्री से इस बारे में बात की तो उसने कहा, 'यह भारतीय रेल में सफर करने की सजा है'. यकीन कीजिये मंत्री जी, अगर किसी सजायाफ्ता मुजरिम को इस प्रतीक्षालय में बंद कर दिया जाय तो वह अपराध करना छोड़ देगा.

जब मुझसे गरमी और बदबू बर्दाश्त नहीं हुई तो मैं नीचे प्लेटफार्म पर आ गया. वहाँ भी बहुत गरमी थी. बैठने के लिए सीट नहीं थीं. यात्री जमीन पर बैठे हुए थे. यह प्लेटफार्म अभी नया बनाया गया है, पर न जाने क्यों बैठने की उचित व्यवस्था नहीं की गई है. ट्रेन के जाने का समय हो गया पर ट्रेन प्लेटफार्म पर नहीं लगाई गई. लगभग ४० मिनट बाद ट्रेन प्लेटफार्म पर आई. चलते चलते काफ़ी लेट हो गई ट्रेन. झरसुगुडा यह ट्रेन लगभग तीन घंटे लेट पहुँची. जिस मीटिंग के लिए मैं झरसुगुडा गया था वह दो घंटे देर से शुरू हो पाई. मंत्री जी हावड़ा स्टेशन पर जो तकलीफ हुई वह तो मैंने बर्दाश्त की, पर मेरी वजह से कार्यक्रम देर से शुरू हो पाया इस के लिए मुझे ३० व्यक्तियों के सामने शर्मिंदा होना पड़ा.

अब वापसी की बात करें. झरसुगुडा से हावड़ा मुझे आज़ाद हिंद एक्सप्रेस (२१२९) से आना था. यह ट्रेन लगभग दो घंटे देर से आई. रास्ते में और ढाई घंटा लेट हुई. हावड़ा इस ट्रेन ने ०३५५ पर पहुँचना था, पर ०८३० पर पहुँची. कोलकाता से मेरी टिकट ०८२० की फ्लाईट में थी. फ्लाईट मिस हो गई. ११३५ की फ्लाईट से नया टिकट खरीदना पड़ा. दिल्ली में अपने घर चार घंटे लेट पहुँचा.

यह बहुत ही निराशाजनक है कि आपकी रेलों में समय की पाबन्दी पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. आपने जितने रेल बजट पेश किए हैं उन में कभी समय की पाबंदी की बात नहीं की गई. जब मंत्री जी ही को समय की पाबन्दी की कोई चिंता नहीं है तो रेल अधिकारी इस बारे में क्यों चिंतित होंगे? यह भारतीय रेल के लिए शर्म की बात है.

अब बात करें पैसे की जो मुझे खरचना पड़ा. मुझे हावड़ा से झरसुगुडा जाना था पर तत्काल सेवा में मुझे टिकट अहमदाबाद तक खरीदना पड़ा. झरसुगुडा तक ८७६ रुपए लगते हैं पर मुझे अहमदाबाद तक के टिकट पर २२८० रुपए खर्च करने पड़े. वापसी में यही हुआ. झरसुगुडा की जगह मुझे अहमदाबाद से टिकट खरीदना पड़ा. कार्यकर्म चूँकि लेट शुरू हुआ था इसलिए समाप्त होने में देर हुई और यह टिकट बेकार गया. चूँकि यह टिकट अहमदाबाद से था इस लिए झरसुगुडा में केंसिल नहीं हो पाया. एक नया टिकट खरीदना पड़ा. पर इस बार टिकट झरसुगुडा की जगह राजनांद गाँव से दिया गया. यह टिकट १२२८ रुपए में आया. कुल मिला कर मुझे १७५२ रुपए की जगह ५७८८ रुपए खर्च करने पड़े.

ट्रेन के हावड़ा लेट पहुँचने से मुझे और ज्यादा नुकसान हुआ. जो रिजर्व टिकट था उस का तो पैसा गया ही, नए टिकट पर ४४२४ रुपए और खर्च करने पड़े. इस प्रकार आपकी रेल में सफर करने से मुझे शारीरिक और मानसिक परेशानी तो हुई ही, उस साथ आर्थिक नुकसान भी हुआ ८६४० रुपए का. काफ़ी मंहगा बैठा यह भारतीय रेल का सफर.

यह सब क्या है? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा. एक व्यक्ति के एक सफर में रेल ने ४२१६ रुपए ज्यादा कमाए. लाखों लोग आपकी रेल से सफर करते हैं. कुछ न कुछ हर यात्री से ज्यादा कमाया ही जाता होगा. इसे क्या कहा जाए, ईमानदारी की कमाई या बेईमानी की? आप कहेंगे की यह तो हमारे नियम हैं. यही तो बेईमानी है. भारत मैं आप की ही एक रेल है. वह सरकारी भी है. अब इस का ग़लत फायदा उठाया जाय और जैसे चाहे नियम बना दिया जाएं. यह तो बेईमानी ही कहलायेगी.

मंत्री जी आप को शायद मेरी बात अच्छी न लगे पर यह जो दिखाया जा रहा है कि आपने रेल को नुकसान से फायदे में ला दिया है, इसी तरह के नियम बना कर और यात्रियों से ग़लत पैसे बसूल कर किया जा रहा है. दिखाने को किराए में कुछ कमी कर दी गई है पर हकीकत में इन यात्री विरोधी नियमों से ज्यादा पैसा बसूला जा रहा है.

रेल एक सरकारी महकमा है. उस का मुख्य उद्देश्य यात्रियों को एक सुविधाजनक, समयबद्ध, साफ-सुथरी, सुरक्षित, सस्ती सेवा उपलब्ध कराना होना चाहिए, न कि केवल पैसा कमाना. सरकारी रेल को 'न फायदा, न नुकसान' के सिद्धांत पर चलना चाहिए. फायदा दिखा कर वाह वाही लूटने के लिए इन सभी यात्री सुवुधाओं को दर किनार कर देना बहुत ही बुरी बात है. कृपया इस बात पर गौर कीजिये.

मैं चाहूँगा कि आप इस पत्र को एक शिकायत के रूप में भी लें, और मेरा जो ज्यादा पैसा खर्च हुआ है उसे वापिस करवाने की व्यवस्था करें. टिकट मेरे पास सुरक्षित हैं. आप जब कहेंगे, उन की प्रतिलिपि मैं आप को भिजवा दूँगा.

साभार,

एस. सी. गुप्ता

Tuesday, May 27, 2008

करों का राक्षस फ़िर सर उठा रहा है

मुझ से डरो, मैं वित्तमंत्री हूँ,
मेरा काम कर लगाना है,

क्या सोचा था तुमने, बजट सत्र गया तो मैं भी गया?
मेरे लिए हर दिन बजट का दिन है,
जब चाहूँगा कर लगा दूँगा,
अगर कार चलाओगे तो सड़क पर कर लगा दूँगा,
अगर बैठोगे तो सीट पर कर लगा दूँगा,
अगर ठंड में काँपे तो गर्मी पर कर लगा दूँगा,
अगर पेदल चलोगे तो पैरों पर कर लगा दूँगा,
पानी, विजली पर सेवा कर लगा चुका हूँ,
किसी दिन लगा दूँगा सेवा कर,
हवा, धूप और फूलों की खुशबू पर,
मुझ से डरो, मैं वित्तमंत्री हूँ.

अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं तो क्या हुआ?
स्कूलों में अध्यापक नहीं हैं तो क्या हुआ?
सड़कों में गड्ढे हैं तो क्या हुआ?
आवागमन के साधन बेकार हैं तो क्या हुआ?
सड़कों पर, घरों में अपराधों का राज्य है तो क्या हुआ?
कीमतें आसमान छू रही हैं तो क्या हुआ?
मेरा काम तो कर लगाना है,
जैसा मर्जी कर लगा दूँगा,
खुले आम तुम्हारी जेब काट लूंगा,
आयकर, वेट, एक्साइज, विक्रीकर,
आय कर पर शिक्षा उपकर,
बहुत सारे हथियार हैं मेरे पास,
कहाँ तक बचोगे?
मुझ से डरो, मैं वित्तमंत्री हूँ.

अभी एक ख्याल आया है मन में,
पेट्रोल और डीजल महंगे करने हैं,
न बढ़ा पाया कीमतें तो क्या हुआ?
आयकर पर लगा दूँगा,
पेट्रोल और डीजल उपकर,
करों के वोझ से लाद दूँगा,
न उठा पाओगे सर कभी,

मुझ से डरो, मैं वित्तमंत्री हूँ,
मेरा काम कर लगाना है,
अगर नहीं डरे तो समझ लेना,
' डरने' पर भी कर लगा दूँगा

Monday, May 26, 2008

लालू जी और मेरी जेब

मैं जब भी लालू जी की तस्वीर देखता हूँ या उनका नाम पढ़ता या सुनता हूँ, मेरा हाथ तुरंत मेरी जेब पर चला जाता है. मुझे हर समय यही डर लगा रहता है कि लालू जी रेल को फायदे में लाने के लिए मेरी जेब काट लेंगे. वह तो जगह जगह हार पहनते घूम रहे हैं और मेरी जेब हल्की और हल्की होती जा रही है.

पहले में जब भी दिल्ली से आगरा या चंडीगढ़ जाता था, दिल्ली में ही जाने के और वापसी के टिकट खरीदता था. पर जब से लालू जी की मेहरबानी हुई वापसी के टिकट में १५ रुपए ज्यादा लगने लगे. रेंगती रेलों को सुपर फास्ट कह कर यात्रिओं की जेब हल्की करना पता नहीं कौन से मेनेजमेंट का मन्त्र है? तत्काल के नाम पर यात्रिओं की जम कर जेब काटी जा रही है. सुरक्षा और समय की पाबन्दी के नाम पर लालू जी और लालू जी की रेल जीरो हैं. रेल कब आएगी और कब जायगी, यह आ जाने और पहुँच जाने के बाद ही पता लगता है. यात्री सुरक्षित पहुँच जायेंगे इनके बारे में भी पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता.
रेल सेवाएं सरकार उपलब्द्ध कराती है. एक सरकारी महकमा होने के नाते रेल विभाग का मुख्य उद्देश्य एक बहुत अच्छे स्तर की सेवा प्रदान करना होना चाहिए, प्रोफिट कमाना नहीं होना चाहिए. रेलों को नो-प्रोफिट-नो-लोस के सिद्धांत पर चलाना चाहिए. पर लालू जी की रेल केवल फायदा कमाने के लिए चलती है. यात्रिओं को एक समय-बद्ध, सुरक्षित, आरामदायक सेवा मिले इस से लालू जी को कोई मतलब नहीं है.

दिल्ली हाई कोर्ट ने एक पेनल बनाईं जिसको रेल प्लेटफार्म्स पर सप्लाई किए जा रहे खाद्य पदार्थों की क्वालिटी की जांच करके रिपोर्ट देने को कहा गया. तीन रेल स्टेशन, पुरानी और नई दिल्ली और हजरत निजामुद्दीन इस जांच के लिए चुने गये. जांच के बाद एक पेनल सदस्य ने कहा कि आज के बाद में रेल द्वारा सप्लाई की गई कोई बस्तु न तो खा सकूंगा और न ही पी सकूंगा. किचिंस में चूहों और क्राक्रोचों कि भरमार थी. कोई भी सिस्टम नहीं था न कच्चा माल खरीदने और स्टोर करने का, खाना बनने का या सर्व करने का. कर्मचारिओं का कोई मेडिकल चेक अप नहीं होता था. ले दे कर जांच रिपोर्ट बहुत ही गड़बड़ थी. एक दिन इस के बारे में अखबार में ख़बर आई और तुरंत ही गायब हो गई. मीडिया ऐसे मौकों पर सरकार की बहुत मदद करता है. कोका कोला पर शोर मचाने वाले लालू जी के खाद्द्य और पेय पदार्थों के बारे में चुप रहे.
आई आर सी टी सी भारतीय रेलों में खाद्द्य और पेय पदार्थों की सप्लाई के लिए ठेके देता है. एक बार में कालका शताब्दी में सफर कर रहा था. जो खाना सर्व किया गया बहुत ही ख़राब था - ठंडा और बेजायका. पता नहीं ग़लत है या सच है - एक सज्जन ने मुझे बताया कि एक शताब्दी या राजधानी एक्सप्रेस में यह ठेका एक करोड़ की रिश्वत देने पर मिलता है. देहरादून और कालका शताब्दी का मेरा अनुभव मुझे इसे सच मानने को मजबूर करता है. दो बार मैंने शिकायत की पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.

लालू जी की एक और देन है रेल यात्रियों को. अब यात्रियों की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. मैंने ताज एक्सप्रेस में तीन बार टीटी द्वारा सप्लाई की गई शिकायत पुस्तिका में शिकायत लिखी पर कुछ नहीं हुआ. देहरादून शताब्दी, कालका शताब्दी, लखनऊ शताब्दी और श्रमजीवी एक्सप्रेस में लिखी शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

अभी पिछले दिनों मैंने हावड़ा-एहमदाबाद एक्सप्रेस में यात्रा की. तत्काल में टिकट ख़रीदा. मुझे झरसागुडा तक जाना था पर एहमदाबाद तक टिकट खरीदना पड़ा. बहत तगड़ी जेब कटी. वापसी आजाद हिंद एक्सप्रेस से हुई. इसमें भी तत्काल से टिकट लिया. पर इस बार एहमदाबाद से नहीं, राजनांदगांव से किराया भरना पड़ा. यहाँ भी जेब कटी.

अब बात करें इन सुपरफास्ट एक्सप्रेस रेलों की समय पाबन्दी की. हावड़ा से रेल ११५५ पर छूटती है. पर उस रात यह रेल १२३० के बाद प्लेटफार्म पर आई. बहुत गर्मी थी उस रात. हालत ख़राब हो गई. करीब दो घंटा देर से झरसागुडा पहुँची. जिस मीटिंग के लिए मैं गया था वह दो घंटा देर से शुरू हो पाई. लालू जी के कारण लगभग ३५ लोगों को परेशानी हुई. वापसी में आजाद हिंद एक्सप्रेस दो घंटा लेट आई और हावड़ा पहुँचते पहुँचते चार घंटे से ज्यादा लेट हो गई. ०३५५ की जगह यह ०८३० के बाद हावड़ा पहुँची. मेरी दिल्ली की फ्लाईट ०८२० पर थी, वह छूट गई. किराया वापस नहीं हुआ. दूसरी फ्लाईट में टिकट लेना पड़ा. लालू जी की मेहरबानी से ४५०० रुपए का चूना लगा और देर से घर पहुँचा सो अलग.

लालू जी की आज कल बहुत तारीफ़ हो रही है. उन्होंने घाटे में चल रही रेल को फायदे में ला दिया. मेनेजमेंट वाले उन्हें हार पहना रहे हैं. पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव से भारतीय रेल एक बहुत ही घटिया रेल सेवा है. इस में यात्रियों के लिए कुछ नहीं है. काश भारत में एक रेल सेवा और होती. कोई तो विकल्प होता यात्रियों के सामने. आपने जाना है तो लालू जी की रेल ही लेनी होगी. जेब कटवा कर देर से पहुचंगे.

Tuesday, May 13, 2008

क्या निजीकरण जनताकरण नहीं है?

हम ने हमेशा यही माना कि निजीकरण जनता को लाभ पहुँचाने के लिए किया जाता है. सरकारीकरण में जनता को जो परेशानियाँ उठानी पड़ती है वह निजीकरण में नहीं उठानी पड़ती. दिल्ली में जब विजली आपूर्ति का निजीकरण किया गया तो मन में यह आशा जगी थी कि अब विजली 'जब चाहे चली जाए' वाली बात नहीं होगी. 'जब मर्जी हुई विजली की कीमत बढ़ा दी' अब् नहीं होगा. पर अब इतने वर्षों बाद यह बात अच्छी तरह समझ आ गई है कि यह निजीकरण जनता के हित में नहीं किया गया. यह नेताओं और बाबुओं का निजीकरण था. जनता के लिए इस में सिर्फ़ नारे थे, झूठे वादे थे, धोखा था, विश्वासघात था. सरकार का निजी कंपनियों के साथ मिल कर जनता के ख़िलाफ़ एक षड़यंत्र था.

हम ग़लत थे. निजीकरण का मतलब जनताकरण नहीं होता. विजली 'जब चाहे चली जाए' वाली बात अब् भी है. विजली की कीमत मर्जी से अब् भी बढ़ा दी जाती है. कोई सुधार नहीं हुआ. सब कुछ बैसे का बैसा है. अन्तर है सिर्फ़ शीला दीक्षित के लिए. अब् वह सारी जिम्मेदारी निजी कम्पनियों पर डाल सकती हैं. जनता की नजरों में अच्छा बनने के लिए निजी कम्पनियों को डांट लगा सकती हैं. उनके घर में विजली कभी नहीं जाती. दिल्ली का वी आई पी एरिया विजली कटौती की चपेट में न पहले था और न अब् है. पहले भी आम आदमी ही तंग था और आज भी आम आदमी ही तंग है.

सरकारी निजीकरण मुर्दाबाद. जनता को जनताकरण चाहिए.

शिकायत करो और भाड़ में जाओ

भारतीय प्रजातंत्र में नागरिकों को बहुत सारे अधिकार हैं. शिकायत करने का अधिकार उन में से एक महत्वपूर्ण अधिकार है. लोग शिकायत करते हैं, और जब कोई उनकी शिकायत नहीं सुनता तब वह इस न सुनने की शिकायत करते हैं. शिकायत न सुनने वालों का कहना है कि उन्हें भी शिकायत न सुनने का अधिकार है. अब यह तो अधिकार-अधिकार की लड़ाई है. जिसका अधिकार तगड़ा निकला वह जीत गया. 'तगड़े' से मेरा मतलब है कि अगर आपने शिकायत न सुनने वाले को यह विश्वास दिला दिया कि आपकी शिकायत न सुनने से उसे नुकसान हो सकता है, तब वह तुरंत आपकी शिकायत सुनेगा. बल्कि न सिर्फ़ सुनेगा, बल्कि तेजी से उसे ठीक भी करेगा. अब यह विश्वास आप कई तरीकों से दिला सकते हैं. सबसे प्रभावशाली तरीका है, उसे किसी नेता से अपनी जान पहचान का हवाला देना.

आपका शिकायत करना जायज है. संविधान ने आपको शिकायत करने का पूरा अधिकार भी दिया है. पर आप दूसरों के उस अधिकार को नजरअंदाज नहीं कर सकते, जिस के अंतर्गत वह यह सब कर सकते हैं. यह अधिकार आता है उस सोच से जो कहता है - 'अरे यार यहाँ सब चलता है'. इस सोच के आगे संविधान भी हाथ खड़े कर देता है.

बहुत से संस्थान शिकायत सुन तो लेते हैं, पर कुछ करते नहीं. कुछ बड़े सेवा संस्थान शिकायत को शिकायत न मानकर सुझाव के रूप में दर्ज कर लेते हैं और बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे यहाँ कोई शिकायत नहीं आती. कुछ और बड़े सेवा संस्थान शिकायतों से निपटने के लिए कम्पूटर लगा देते हैं. आप शिकायत करते हैं और यह कम्पूटर उसे एक नंबर दे देता है और कुछ समय बाद बंद कर देता है. कोई एक्शन न होने पर आप फ़िर शिकायत करते हैं या पहली शिकायत का रिमाइंडर देते हैं. यह कम्पूटर फ़िर एक नया नंबर दे देता है और कुछ समय बाद उसे बंद कर देता है. यह सिलसिला चलता रहता है और कुछ समय बाद आप थक कर शिकायत करना बंद कर देते हैं. कुछ संस्थान अपने और आपके बीच में काल सेंटर खड़ा कर देते हैं और मस्ती की नींद सोते हैं. आप निपटते रहिये काल सेंटर वालों से. पुलिस की बात करें तो वह शिकायत दर्ज करने से बचने में एक्सपर्ट हैं. अक्सर पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के लिए अदालत में जाना पड़ता है.

आम तौर पर जनता को सरकार से शिकायत होती है. पर अब सरकार भी जनता की शिकायत करती है. पिछले दिनों दिल्ली के उपराज्यपाल ने दिल्ली के कुछ लोगों की शिकायत की थी. हल्ला मच गया तो शिकायत को सुझाव कह दिया गया. नेता लोग तो हमेशा ही दूसरे नेताओं और पार्टियों की शिकायत करते रहते हैं. इन शिकायतों का कोई अर्थ नहीं होता, बस वह राजधर्म का पालन करने के लिए की जाती हैं.

दूसरी तरफ़ कुछ लोग आपके सुझाव को शिकायत मान लेते हैं और बुरा मान जाते हैं. अगर आपने कुछ ज्यादा सुझाव दे दिए तो आप के बारे में यह कहा जाने लगता है कि, 'यार यह आदमी हर समय शिकायत ही करता रहता है'. आप लाख कहें कि मैं शिकायत नहीं कर रहा हूँ पर कोई आपकी बात नहीं सुनता.

सबसे मजेदार बात यह है की लोग सिर्फ़ दूसरों की शिकायत करते हैं. ख़ुद की शिकायत कोई नहीं करता. अगर आप ईमानदारी से किसी मसले को देखें तो पाएंगे कि उसमें शिकायत तो आपके ख़ुद के ख़िलाफ़ बनती है. क्या आपने कभी अपने ख़िलाफ़ शिकायत की है? यदि नहीं तो करके देखिये. कुछ नया ही अनुभव मिलेगा.

एक कहावत है - "शिकायत करो और भाड़ में जाओ". क्या कहा, आपने नहीं सुनी आज तक यह कहावत? अरे भाई सुनेंगे कहाँ से. अभी अभी तो लिखी है मैंने. बैसे एक बात बताइये, क्या आप ख़ुद नहीं कहते हें, शिकायत करो और भाड़ में जाओ?

Monday, May 12, 2008

लालूजी की रेलों में सफाई प्रतियोगता

मैं अक्सर रेल में सफर करता हूँ. आप भी करते होंगे. आपने भी देखी होगी, प्लेटफार्म पर सफाई, दो प्लेटफार्म के बीच रेल लाइनों पर सफाई, प्रतीकक्षालयों में सफाई, शौचालयों में सफाई, चलती रेलों में सफाई. हर जगह आपको गंदगी ही गंदगी दिखाई देगी. एक गन्दा सोच बन गया है रेल प्रशासन में. ऐसा नहीं है कि सफाई करने के लिए सुविधाएँ नहीं हैं. सुविधाएँ हैं पर क्यों परेशान होना. यात्री शिकायत करते नहीं. बल्कि वह ख़ुद भी गंदगी करने में अपना पूरा योगदान देते हैं. पिछले सप्ताह मैंने आज़ाद हिंद एक्सप्रेस में सफर किया. एक एसी २ टियर और तीन एसी ३ टियर, यह चार डिब्बे साथ थे. मैं शौचालय की तरफ़ गया. मेरे डिब्बे के शौचालय बहुत गंदे थे. इसलिए दूसरे डिब्बों में गया. सब जगह ऐसी या इस से बुरी हालत थी. एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे तक जाने पर तो ऐसा लगा जैसे किसी कूड़ेदान से गुजर रहे हों. फर्श पर पानी, चाय के पेपर कप, पानी की खाली बोतलें, रात में खाने की पेपर की थालिआं, और न जाने क्या क्या.

आपको शायद याद हो, कुछ वर्ष पहले लालूजी ने बजट भाषण के दौरान प्लेटफार्मों पर सफाई प्रतियोगता का एलान किया था. जो प्लेटफोर्म साफ पाए जाएँगे उन्हें पुरूस्कार मिलेगा. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. अगले वर्षं के बजटों में इस का कोई जिक्र भी नहीं किया उन्होंने. शायद बजट भाषण के बाद उन्होंने सफाई प्रतियोगता को गंदगी प्रतियोगता के रूप में बदल दिया. शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेंस में नए डिब्बे लगे हैं, पर शौचालय गंदे रहते हैं. तरल साबुन की जगह सादा पानी भर दिया जाता है. पूरी यात्रा के दौरान कोई सफाई कर्मचारी नजर नहीं आता.

लालूजी बातें बहुत करते हैं. उनकी तारीफ़ भी बहुत की जाती है कि उन्होंने रेल का कायाकल्प कर दिया है. पर में जब भी सफर करता हूँ मुझे सामान्य सफाई भी नजर नहीं आती. गंदे डिब्बे, गंदे शौचालय, गंदे प्लेटफार्म, रेल लाइनों पर गंदगी, यह लालूजी का रेल ब्रांड है.

समय की पाबन्दी!! यह क्या चीज है?

बचपन में पढ़ा था - समय बहुत बलबान है, समय किसी के लिए नहीं रुकता, जो समय के साथ नहीं चलते पिछढ़ जाते हैं. जीवन के हर पड़ाव पर यह अनुभव भी होता गया. शिक्षा पूरी होने पर मैनेजमेंट से संबंधित व्यवसाय ही चुना. टाइम मैनेजमेंट एक मुख्य विषय रहा. पर भारत सरकार के रेल मंत्रालय की नजर में समय का कोई महत्त्व नहीं है. कितने बजटों की नौटंकी देखी है मैंने. किसी बजट में किसी रेल मंत्री ने समय की पाबन्दी की कोई बात नहीं की. रेल कब छूटती है और कब पहुँचती है यह बात कभी किसी मंत्री के ध्यान में ही नहीं रही. पिछले दिनों मैंने एक ब्लाग पोस्ट लिखी थी कि रेलों के लेट पहुँचने से कितने समय की बबादी होती है? अगर आप रेलों के देर से पहुँचने के कारण बरबाद हुए समय की गणना करें तो दंग रह जायेंगें. मेरे विचार में यह एक बहुत बड़ा अपराध है और इसके लिए रेल मंत्रालय की जितनी भर्त्सना की जाए कम होगी.

आज के अखबार में एक समाचार है - लालूजी सिंगापुर जाकर वहाँ के मैनेजमेंट स्टूडेंट्स को भारतीय रेल की महान सफलताओं के बारे में बतायेंगें. लेकिन रेलों के देर से चलने से देश को कितनी आर्थिक हानि हुई है इसका जिक्र वह नहीं करेंगे. जितना फायदा लालूजी दिखायेंगे वह उस नुकसान से बहुत कम होगा जो उन्होंने देश को पहुँचाया है. अगर हम उनसे इस बारे में बात करें तो मुझे विश्वास है कि उनका जवाब होगा - ""यदि आप समय पर अपने गंतव्य पर पहुँचना चाहते हैं तब भारतीय रेल से यात्रा न करें. समय की हमारे लिए कोई कीमत नहीं है".

पिछले सप्ताह मैं उड़ीसा में झरसागुडा गया था. दिल्ली से कोलकाता तक हवाई यात्रा और वहाँ से रेल. हावड़ा-अहमदाबाद एक्सप्रेस का छूटने का समय है ११.५५, पर यह ट्रेन १२.३० पर पलेटफ़ामॅ पर लगाई गई. गर्मी से बुरा हाल हो गया. आधा घंटा ट्रेन लेट चली और दो घंटा देर से पहुँची. जिस कार्य के लिए मैं गया था वह देर से शुरू हो पाया. इक्कीस लोग मेरे देर से पहुँचने से परेशान हुए. और इस सबके लिए कौन जिम्मेदार था, लालूजी और उनका मंत्रालय.

वापसी में मेरा रिज़र्वेशन आज़ाद हिंद एक्सप्रेस में था. यह ट्रेन लगभग दो घंटा बिलंब से आई. रास्ते में और बिलंब हुआ और यह ट्रेन ०८.३२ पर हावड़ा पहुँची. इसका सही समय है ०३५०. कोलकाता से मुझे ०८.२० की फ्लाईट लेनी थी पर वह मिस हो गई. टिकट बेकार गया. ११.३५ की फ्लाईट से नया टिकट लेना पड़ा. लालूजी के कारण मुझे ४५०० रुपए का नुकसान हुआ. देर से दिल्ली पहुँचा. घर वाले बहुत परेशान हुए. देवी माँ की कृपा से अगली फ्लाईट में जगह मिल गई वरना न जाने कितनी परेशानी उठानी पड़ती. इस सबके लिए कौन जिम्मेदार था, लालूजी और उनका मंत्रालय. पर लालूजी को तो हार पहनाये जा रहे हैं.

किसे चिंता है ग्राहक की?