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India Against Corruption - A Jan Lokpal Bill has been designed which has strong measures to bring all corrupt people to book. Join the cause and fight to force politicians to implement this powerful bill as an act in the parliament.

Thursday, September 30, 2010

IDA and Product Certification

Consumers use various dental products, such as, mouthwash, toothpaste etc, for personal dental care and hygiene. They must have noticed that many of these products display the logo of IDA, Indian Dental Association (see photo). Use of this IDA logo is technically known as Third Party Certification. Here IDA is Third Party and use of its logo on the product gives an assurance from IDA about the quality (safety and efficacy) of the dental product. IDA calls it "IDA Seal".

To understand it better - consumers must have seen ISI Mark on various products. ISI Mark is the Product Certification mark of India's National Standards Body, Bureau of Indian Standards (BIS), which operates a Product Certification Scheme under an Act of Parliament, BIS Act, and Rules and Regulation made under it. BIS is operating this scheme for last more than 55 years. Under this scheme, BIS is the Third Party and gives an assurance that any product having this ISI mark is meeting requirements of the Indian Standard, number of which is printed above the ISI mark. This scheme has a very elaborate procedure for ensuring the quality of the products. For knowing details of the BIS Scheme CLICK here.

I have visited the website of IDA and studied the information given about IDA Seal. The IDA scheme is missing many important elements of an ideal third-party product certification scheme. It is based on the information and data provided by the manufacturerer. IDA on its own does not carry out any inspection and testing before granting IDA seal to the manufacturer and also during the operative period of three years for which IDA seal is granted. These inspections and testing are vital to any third party certification, and without them any product certification scheme has no real value. Certification of quality of dental products by IDA under this scheme can not be said to be of any real value to the consumer. It does even inform the consumer against which standard the certification has been granted. In absence of this information, consumer interests are not protected.

In my opinion, the IDA Seal on any dental product is misleading. IDA should consider withdrawing this scheme or improve it to conform to the guidelines framed by ISO for Product Certification Scheme.

Friday, September 24, 2010

Protect yourself from misleading advertisements

Click on the image to read how some product/service providers mislead you in to buying their products/services and make you repent later. It is your hard earned money. Before you part with it, you should very carefully read the advertisement, especially if it says 'conditions apply'.

Normally these conditions are not printed in the advertisement. You will have to especially ask for them. In almost all cases, the conditions are anti-consumer and includes conditions which are loaded in favour of product/service provider, and will put you to lot of inconvenience and loss of money. The product/service, which you think has come at a lower price, may in reality be very costly and of sub-standard quality.

So, dear consumers protect yourself from such misleading advertisements. Be catious. कहते हैं कि सावधानी में ही सुरक्षा है.

Friday, September 17, 2010

वाटर फिल्टर्स और पीने का पानी - कितना सुरक्षित?


आपने अपनी रसोई में वाटर फ़िल्टर अवश्य ही लगा रखा होगा. इसके लिए काफी पैसे खर्च किये होंगे. यह सोच कर बहुत संतोष के साथ आप फ़िल्टर का पानी पीते होंगे कि यह पानी पूर्ण रूप से सुरक्षित है. परन्तु आज अखवार में छपी ख़बरों के अनुसार यह सही नहीं है. अधिकाँश वाटर फ़िल्टर वाइरस (विषाणु) को दूर नहीं करते. वाटर फ़िल्टर निर्माताओं के पूर्ण सुरक्षित पानी के दावे गलत हैं. पूरी जानकारी के लिए साथ की फोटो पर क्लिक करें. आन लाईन पढ़ने के लिए क्लिक करें.

मैंने भामाब्यूरो की वेबसाईट पर देखा - केमिकल डिपार्टमेंट में एक समिति है एम्एचडी-२२ जिसने वाटर प्योरिफिकेशन सिस्टम पर मानक बनाया है जिस का नंबर है आई एस १४७२४. भामाब्यूरो ने १२ वाटर फ़िल्टर निर्माताओं को लाइसेंस दिए हैं जिन के अंतर्गत यह निर्माता अपने वाटर फिल्टर्स पर आई एस आई मुहर लगाते हैं.

पुणे स्थित नेशनल इंस्टीटयूट आफ विरोलोजी (एनआईवी) द्वारा की गई एक स्टडी में यह कहा गया है कि भारत में निर्मित आठ ब्रांड्स के वाटर फिल्टर्स में केवल दो ऐसे पाए गए जिन में विषाणु पूर्ण रूप से दूर कर दिए गए. लेकिन इस संस्था ने इन ब्रांड्स के नाम बताने से इनकार कर दिया. ग्राहकों को यह अधिकार है कि इन ब्रांड्स के बारे उन्हें जानकारी दी जाय. मैं सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत यह जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करूंगा. एनआईवी भामाब्यूरो की समिति का सदस्य है.

इस स्टडी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में वाटर फ़िल्टर जैसे उपकरणों की जांच करने के कोई मानक नहीं हैं. एनआईवी ने अपनी स्टडी के लिए अमरीका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के मानकों का प्रयोग किया. रिपोर्ट के अनुसार भारतीय मानक ब्यूरो समिति इस रिपोर्ट की जांच करेगी. भामाब्यूरो को एनआईवी से यह जानकारी लेकर देखना चाहिए कि वह कौन लाइसेंसधारी हैं जिनके वाटर फिल्टर्स टेस्ट में फेल हुए है और फिर उन पर आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए. मैं भी भामाब्यूरो से यह जानकारी लेने का प्रयत्न करूंगा पर भामाब्यूरो से आसानी से जानकारी नहीं मिलती, इस लिए मुझे सूचना अधिकार अधिनियम का सहारा लेना होगा.

यह बहुत ही दुःख का विषय है कि नागरिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की चिंता न तो उत्पाद/सेवा प्रदाता करते हैं और न ही सरकार. रोज अखवारों में दिल घबरा देने वाली ख़बरें आ रही हैं. नकली दूध, फल और सब्जिओं में खतरनाक रसायन, बोतल बंद पानी में खतरनाक रसायन के बारे में अखवारों में आता रहा है. कल शहद में एंटीबायोटिक्स होने के बारे में खबर थी. आज फिल्टर्ड पानी के सुरक्षित न होने की खबर है. कहते हैं ग्राहक राजा है. यह कैसा राजा है जिसे हर समय अपने जीवन की सुरक्षा का खतरा लगा रहता है?

Thursday, September 16, 2010

शहद खाने में भी खतरा है

जागो ग्राहक जागो, अपनी रक्षा खुद करो

मुझे तो यह खबर पढ़ कर झटका लगा. फोटो पर क्लिक करिए और आप भी खबर पढ़िए. मुझे यकीन है कि आपको भी झटका लगेगा. शहद, जिसे आप सब बड़े स्वाद से खाते हैं, बच्चों को खिलाते हैं, और यह सोचते हैं कि इस से आपकी और बच्चों की सेहत बनेगी, इस खबर के अनुसार यह शहद सेहत बनाएगा नहीं, उसे और बिगाड़ देगा.

शहद के १० देसी और २ विदेशी ब्रांड्स का परीक्षण करने पर शहद में एंटीबायोटिक्स पाए गए जिन के लगातार इस्तेमाल से रक्त-सम्बन्धी बीमारियाँ हो सकती है और लिवर को नुकसान पहुँच सकता है. यह परीक्षण सेंटर फार साइंस एवं एनवायरनमेंट ने किया. इस संसथान की निदेशक सुनीता नारायण ने कहा है की एक ब्रांड को छोड़कर सब ब्रांड्स के शहद में एक से अधिक एंटीबायोटिक्स पाए गए. उनके अनुसार भारत में एंटीबायोटिक्स पर कोई मानक निर्धारित नहीं हैं. निर्यात के लिए जो मानक निर्धारित किये गए हैं उन पर यह ब्रांड्स खरे नहीं उतरते. विदेशी ब्रांड्स भी उनके अपने देश के मानकों पर खरे नहीं उतरे.

पता नहीं इस रिपोर्ट पर भारत सरकार और उस का स्वास्थ्य मंत्रालय क्या कार्यवाही करेगा, पर केवल उस पर भरोसा करना बेमानी होगा. ग्राहकों को अपनी रक्षा खुद करनी होगी.

इस लिंक पर भी क्लिक करें. कुछ और जानकारी मिलेगी.

Wednesday, September 15, 2010

दिल्ली सरकार - ग्राहकों की दोस्त या दुश्मन


दिल्ली में जब विजली वितरण दिल्ली सरकार ने प्राईवेट वितरण कम्पनियों को सौंपा तब विजली के ग्राहकों ने सोचा था कि सरकारी ब्यूरोक्रेसी से छुटकारा मिलेगा और उचित दरों पर कट-रहित विजली मिलेगी. लेकिन कुछ ही समय बाद ग्राहकों को यह पता चल गया कि विजली वितरण का जनताकरण नहीं बल्कि सरकारी निजीकरण (या नेताकरण) हुआ है. पहले सरकारी विजली विभाग ग्राहकों को लूटता था अब यह बितरण कम्पनियां दिल्ली सरकार के साथ मिल कर ग्राहकों को लूट रही हैं.

पिछले दिनों में तो दिल्ली सरकार ने हद कर दी जब मुख्य मंत्री खुद दौड़ी हुई डीईआरसी के पास गईं और उसे विजली दरें कम करने का आदेश जारी करने से मना कर दिया. काफी जद्दो-जहद के बाद जब डीईआरसी ने आदेश सरकार के पास भेजा तब सरकार ने उसे नामंजूर कर दिया. इस आदेश के जारी न होने से ग्राहकों को कितना नुक्सान हुआ है यह जानने के लिए पास के फोटो पर क्लिक कीजिए. जिन ग्राहकों के वोट से यह सरकार तीसरी बार सत्ता में आई है, उन ग्राहकों के लिए यह सरकार काम नहीं करती. यह सरकार काम करती है अपनी पार्टनर विजली वितरण कम्पनियों के लिए.

अब दिल्ली में विजली ग्राहक ही तय करें कि दिल्ली सरकार उनकी दोस्त है या दुश्मन ???

Tuesday, September 14, 2010

सीवीसी, भ्रष्टाचार और नागरिक

फोटो पर क्लिक करें और यह खबर पढ़ें. सरकार के एक मंत्री का कहना है कि जो सरकारी बाबू अपने कार्यकाल में प्रभावशाली भूमिका निभा सकते थे पर निभा नहीं निभा पाए वह सेवा-निवृत्त होने के बाद संत हो जाते हैं. मंत्रीजी ने नाम तो नहीं लिया पर लगता है कि उनका ईशारा अभी-अभी सेवा-निवृत्त हुए केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त श्री प्रत्यूष सिन्हा की तरफ है. इन सरकारी बाबू ने सेवा-निवृत्त होने के बाद शायद यह कहा कि एक तिहाई भारतीय जबदस्त भ्रष्टाचारी हैं, और आधे भारतीय भ्रष्टाचार की लक्ष्मण रेखा पार कर चुके या करने वाले हैं.

बात तो मंत्रीजी ने सही कही है. ऐसा अक्सर सेवा-निवृत्त बाबुओं के साथ होता है. पर सिन्हा साहब ने जो कहा है उस में भी कुछ सच्चाई है. भ्रष्टाचार का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है और लगातार नए लोग इस में शामिल होते जा रहे हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की इच्छा शक्ति बहुत कमजोर है. संगठित तौर पर जो भ्रष्टाचार होता है उस के खिलाफ मुहिम छेड़ने के बजाय सरकार उस में शामिल लोगों के साथ खड़ी नजर आती है. साझा धन खेलों का उदाहरण सब के सामने है. इन खेलो में भ्रष्टाचार से जितना काला धन पैदा हुआ है उस से इन खेलों को अगर काला धन खेल कहा जाय तो गलत नहीं होगा.

सिन्हा साहब के बारे में मेरा अनुभव संतोषदायक नहीं है. भारतीय मानक ब्यूरो में हुए भ्रष्टाचार पर मेरी शिकायतों पर उनका व्यवहार बहुत दुखद रहा. जिन ब्यूरो अधिकारियों और ब्यूरो के केन्द्रीय सतर्कता अधिकारी (सीवीओ) के खिलाफ शिकायतें की गईं, सिन्हा साहब ने उन शिकायतों को वापस उन्हें ही भेज दिया और यह भी लिख दिया कि वह जो ठीक समझें कार्यवाही करें और केन्द्रीय सतर्कता आयोग को कोई रिपोर्ट भेजने की जरूरत नहीं है. परिणाम स्वरुप सारी शिकायतें दबा दी गईं. मुझे चुप कराने के लिए भी यह कहा गया कि जब तक सिन्हा साहब सीवीसी हैं कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. एक शिकायत सीवीसी में रजिस्टर भी हो गई, पर उस को भी सीवीओ को ही भेज दिया गया, हाँ यह जरूर कहा गया कि तीन महीने में अपनी रिपोर्ट आयोग को भेजें. आज आठ महीने हो रहे हैं, सीवीसी की वेबसाईट पर यही लिखा आ रहा है कि सीवीओ ने अभी तक रिपोर्ट नहीं भेजी है. यह है सिन्हा साहब के काम का एक छोटा हिस्सा जो उन्होंने सीवीसी के रूप में किया. अब वह सेवा-निवृत्त हो गए हैं और आधे भारतीय नागरिकों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं. मंत्रीजी के अनुसार वह अब संत हो गए हैं.

Sunday, September 12, 2010

रेल सेवाएँ और ग्राहक


भारत का लगभग हर नागरिक रेल में यात्रा करता है और इस नाते रेल सेवाओं का ग्राहक है. इस सेवा में कोई स्पर्धा नहीं है. ले देकर एक ही रेल सेवा है और उसे सरकार चलाती है. एक सही गुणवत्ता की रेल सेवा प्रदान करने के दावे तो बहुत कुछ किये जाते हैं पर यह सब दावे खोखले हैं. इस का कारण है, सरकार/मंत्री स्तर पर जबाबदेही का न होना. इस स्तर पर एक गैरजिम्मेदारी का माहौल है, जिसका का प्रभाव निचले स्तरों पर पड़ा है और पूरे रेल ढाँचे में गैरजिम्मेदारी का माहौल नजर आता है.

रेल के अन्दर खाने की सेवाओं की अगर बात की जाय तब ऐसा ही माहौल नजर आता है. यह सेवाएँ इंडियन रेलवे केटरिंग एवं टूरिज्म कारपोरेशन (आईआरसीटीसी) प्रदान करता है. भारतीय रेल की प्रतिष्ठित राजधानी एवं शताब्दी एक्सप्रेस के मीनू कार्ड पर नजर डालिए (फोटो पर क्लिक करें). अब हकीकत में क्या होता है इसकी जानकारी मैं आपको देता हूँ. यह बता दूं कि मैं शताब्दी एक्सप्रेस से नियमित यात्रा करता हूँ. आईआरसीटीसी जो खाद्य सामग्री ग्राहकों को उपलब्ध कराता है उस के पैसे पहले ही ले लिए जाते हैं. यह सेवा प्रदान करने के लिए आईआरसीटीसी टेंडरों के माध्यम से केटरिंग एजेंसिओं को ठेका देता है.

खाद्य पदार्थ रेल डिब्बे में जहाँ रखे जाते हैं वहां की सफाई को उच्च स्तर का नहीं कहा जा सकता. पानी गर्म करने के लिए जो उपकरण इस्तेमाल किये जाते हैं उन की साफ़-सफाई का कोई प्रबंध नजर नहीं आता. गर्म पानी सर्व करने के फ्लास्क और कप को देख कर चाय/काफी पीने का मन नहीं करता. लगभग ७८ यात्रियों को सर्व करने के लिए केवल दो वेटर हैं, फ्लास्क की संख्या बहुत कम है. इसके कारण डिब्बे के दूसरे हिस्से में बैठे यात्रियों को सेवा देर से मिलती है. डिब्बे के पास के हिस्से में बैठे यात्री जब चाय/काफी पी लेते हैं तब उन फ्लास्कों में दूसरे यात्रियों को सर्व किया जाता है. प्लास्टिक ट्रे टेढ़ी हो गई हैं. रेल के झटकों में चाय इत्यादि कपड़ों पर गिरने का डर रहता है. कभी-कभी पेपर कप चाय पीने के लिए दिए जाते हैं, यह गर्म हो जाते हैं और चाय पीने में काफी दिक्कत होती है.

नई दिल्ली - कालका शताब्दी में मैंने ९ सितम्बर को यात्रा की. मैं डिब्बे के दूसरे हिस्से में था. पानी की बोतल रेल चलने के २० मिनट बाद मिली. अखवार ४० मिनट बाद मिला और वह भी जो बच गया. सुबह की चाय में चाय का एक बेग और दूध का एक पेकेट कम मिला (मीनू कार्ड के अनुसार इनकी संख्या २ होनी चाहिए थी पर मिला एक). नाश्ते के साथ चाय में भी यही हाल था. यह सिर्फ मेरे साथ नहीं था. पास में बैठे और यात्रियों के साथ भी यही हुआ. लगभग १२०० यात्री शताब्दी में यात्रा करते हैं. अंदाजा लगाइए, २४०० टी बेग और २४०० दूध के पेकेट कम सर्व करके ठेकेदार ने कितने पैसे बचाए. ११ सितम्बर को मैं वापस आया. यही हाल शाम की चाय में हुआ. खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता आईआरसीटीसी कैसे सुनिश्नित करता है, यह जानने के लिए मैंने आरटीआई में अर्जी दी पर कोई जानकारी अभी तक नहीं मिली है. पुनः एक और अर्जी देने जा रहा हूँ.

रेलों में चाय कैसे बनती है यह देखने के लिए क्लिक करें.

मैं अगर यह कहूं कि रेल में खान-पान से सम्बंधित सेवाओं की गुणवत्ता सही नहीं है तो गलत नहीं होगा. भारत सरकार/रेल मंत्रालय/आईआरसीटीसी ग्राहकों के साथ अन्याय कर रहे हैं, उनकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठा रहे हैं.

Monday, September 06, 2010

National Anti-Corruption Strategy

Central Vigilance Commission (CVC) has posted a draft document on its website inviting comments on National Anti-Corruption Strategy. Last date of submitting comments is 20 September 2010. CLICK to read the draft and summary.


As per Preface – “The National Anti-Corruption Strategy represents a blue print for commitment and action by the various stakeholders to the governance process. It aims at systematic and conscious reshaping of the country’s national integrity system. The strategy recommends a set of action to be taken by the government and a set of action by the political entities, judiciary, media, citizens, private sector and civil society organizations. To ensure that the strategy does not remain a mere document, it is envisaged to ensure its effective implementation by developing suitable parameters for evaluating and monitoring the progress of its implementation. The CVC would review the progress on an annual basis and submit a report to the Parliament.”


Chapter VIII deals with the role of citizens in anti-corruption. Success in the battle against corruption hinges upon citizen participation in ushering in transparency and accountability. Citizens have a tremendous potential to participate directly and contribute at bringing about change using tools such as moral appeals, exposure and embarrassment, appeals to pride, standing and responsibility besides standing up and playing a key role in exposing wrong doing and non compliances.


As a citizen (grahak of services) and as a stakeholder to the governance process, I agree with this strategy. I am studying the document and will submit my comments. I will also post my comments on this blog.

My request is to all citizens to read and comment on this document, as the strategy and its effective and efficient implementation will ultimately help them.

Thursday, September 02, 2010

यह कैसा उपभोक्ता संरक्षण है?

भारत सरकार का एक मंत्रालय है - उपभोक्ता मामले, खाध्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय. इसके मंत्री हैं श्री शरद पवार, राज्य मंत्री हैं प्रो. के वी थामस. इस मंत्रालय के अंतर्गत एक विभाग है - उपभोक्ता मामले विभाग. इस विभाग के अंतर्गत है - भारतीय मानक ब्यूरो. भामाब्यूरो भारत की राष्ट्रीय मानक संस्था है. इस के महा-निदेशक हैं श्री शरद गुप्ता, आईएएस. अब यह मत पूछियेगा कि एक आईएएस इस साइंटिफिक संस्था में क्या कर रहा है? यही तो इस देश का दुर्भाग्य है कि यह सरकारी बाबू हर जगह घुसे हुए हैं और इन्होनें हर संस्था की हालत बुरी कर रखी है.

भामाब्यूरो, भारतीय संसद द्वारा पारित विधान "भारतीय मानक ब्‍यूरो अधिनियम १९८६" द्वारा प्रदत शक्ति से एक 'उत्‍पाद प्रमाणन योजना' चला रहा है जिसके अंतर्गत लाइसेंसधारी को मानक मुहर (आईएसआई मार्क) को अपने उत्पाद पर लगाने की स्‍वीकृति मिल जाती है. भामाब्यूरो की यह उत्‍पाद प्रमाणन योजना आईएसओ मार्गदर्शिका २८ पर आधारित है. इस योजना के अंतर्गत फैक्‍टरी की गुणता प्रबध पद्धति का मूल्‍यांकन किया जाता है, जिसमें फेक्ट्री की उत्पाद निर्माण छमता, परीक्षण छमता, कर्मचारियों की योग्यता एवं छमता का मूल्यांकन शामिल है. उत्‍पाद की मानक अनुरूपता को जांचने के लिए फैक्‍टरी में उत्पाद के नमूनों का परीक्षण किया जाता है. इसके अलाबा फेक्ट्री से लिए गए नमूनों का स्वतंत्र प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया जाता है. सब कुछ सही पाए जाने पर ही मानक मुहर के उपयोग की स्‍वीकृति दी जाती है। इस मुहर का अर्थ यह है कि उत्पाद सम्बंधित राष्ट्रीय मानक की अपेक्षाओं के अनुरूप है.

पहले एक वर्ष में चार बार फेक्ट्री का निरीक्षण किया जाता था, एक वर्ष में उत्पाद के चार नमूनों का फेक्ट्री में परीक्षण किया जाता था. एक वर्ष में फेक्ट्री से लिए चार नमूनों का स्वतंत्र प्रयोगशाला में परीक्षण किया जाता था. एक वर्ष में उत्पाद के चार नमूने बाजार से खरीदे जाते थे और उनका स्वतंत्र प्रयोगशाला में परीक्षण किया जाता था. अब शायद सरकार और ब्यूरो को उपभोक्ता संरक्षण की उतनी चिंता नहीं रही. अब विधान में परिवर्तन कर दिया गया है - एक वर्ष में दो निरीक्षण, दो नमूने फेक्ट्री में, दो नमूने फेक्ट्री से लेकर और दो बाजार से खरीद कर परीक्षण करने का नियम बनाया गया है. इस नियम का भी पूरी तरह पालन नहीं किया जाता. न निरीक्षण पूरा होता है और न परीक्षण पूरा. कुछ केसेज में तो दो वर्ष बीत गए पर न निरीक्षण किया गया न परीक्षण.

एक और आघात जो इस योजना पर किया गया है वह है - अब अधिकतर निरीक्षण बाहर के लोगों से कराये जाते हैं. यह लोग भामाब्यूरो के निरीक्षकों के मुकाबले में योग्यता, अनुभव और ट्रेनिंग में काफी कमजोर हैं. एक मुख्य बात यह भी है कि इन बाहरी निरीक्षकों की सेवाएँ कानून का उल्लंघन करके ली जा रही हैं. इन बाहरी निरीक्षकों द्वारा अब तक जितने भी निरीक्षण किये गए हैं वह कानून की द्रष्टि से गैर-कानूनी हैं.

मैंने यह बात ब्यूरो और सरकार में हर स्तर पर उठा रखी है, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक. कुछ महीने पहले मेरा एक साक्षात्कार दूरदर्शन पर भी प्रसारित हुआ था. पर न ब्यूरो में और न ही सरकार में इस पर कोई कार्यवाही की गई है.

यह कैसा उपभोक्ता संरक्षण है?

Wednesday, September 01, 2010

BIS misleads consumers about its Hallmarking Scheme for Gold Jewellery

If you visit National Portal of India PAGE on ‘Bureau of Indian Standards’, you will find following information:

Hallmarking - Hallmarking of Gold Jewellery started in April 2000 on voluntary basis under BIS Act, 1986.

Similarly, on BIS website PAGE on ‘BIS Certification Scheme for hallmarking of Gold Jewellery’, you will find following information:

Government of India' has identified BIS a sole agency in India to operate this scheme. BIS hallmarking Scheme is voluntary in nature and is operating under BIS Act, Rules and Regulations.

Both these statements are misleading as this BIS Hallmarking Scheme has no legal backing of BIS Act, 1986, Rules and regulations.

Section 15 (1) of BIS Act, 1986 says that the Bureau may, by order, grant, renew, suspend or cancel a license in such manner as may be determined by regulations. BIS, so far, has not made any Regulations for operating Certification Scheme for Hallmarking of Gold Jewellery.

This issue has been raised by Mr. A L Makhijani, President of Forum for Good Governance, in September 2009 with BIS through a RTI application. BIS gave incomplete and misleading information. Mr. Makhijani submitted a representation to the Prime Minister in January 2010 with copies to Shri Sharad Pawar (Minster in-charge of BIS) and Secretary of Department of Consumer affairs, controlling ministry of BIS.

I have also raised this issue on my blog MANAK - RTI exposes another illegality in BIS – Hallmarking Scheme

Till date, BIS and Government have not taken any action to notify regulations for Hallmarking Scheme. The scheme continues to be run without any legal backing of BIS Act; and both BIS and Government continue to mislead the consumer.


This is a very unfortunate situation. What a consumer is supposed to do when Government itself violates the law? Prime Minister has been informed about this illegality. Mainister in-charge of BIS and Secretary of controlling ministry have also been similarly informed. But no body is ready to do any thing. Sometimes I feel that the both BIS and Government are cheating the Indian consumer.